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स ग्रामे॑भि॒: सनि॑ता॒ स रथे॑भिर्वि॒दे विश्वा॑भिः कृ॒ष्टिभि॒र्न्व१॒॑द्य। स पौंस्ये॑भिरभि॒भूरश॑स्तीर्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa grāmebhiḥ sanitā sa rathebhir vide viśvābhiḥ kṛṣṭibhir nv adya | sa pauṁsyebhir abhibhūr aśastīr marutvān no bhavatv indra ūtī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। ग्रामे॑भिः। सनि॑ता। सः। रथे॑भिः। वि॒दे। विश्वा॑भिः। कृ॒ष्टिऽभिः॑। नु। अ॒द्य। सः। पौंस्ये॑भिः। अ॒भि॒ऽभूः। अश॑स्तीः। म॒रुत्वा॑न्। नः॒। भ॒व॒तु॒। इन्द्रः॑। ऊ॒ती ॥ १.१००.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:100» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम वीरों को राखनेहारा (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् सेना आदि का अधीश (ग्रामेभिः) ग्रामों में रहनेवाले प्रजाजनों के साथ (सनिता) अच्छे प्रकार अलग-अलग किये हुए धनों को भोगता है (सः) वह आनन्दित होता है। जो (विदे) युद्धविद्या तथा विजयों को जिससे जाने, उस क्रिया के लिये (रथेभिः) सेना के विमान आदि अङ्गों और (विश्वाभिः) समस्त (कृष्टिभिः) शिल्प कामों की अति कुशलताओं से प्रकाशमान हो (सः) वह और जो (अशस्तीः) शत्रुओं की बड़ाई करने योग्य क्रियाओं को जानकर उनका (अभिभूः) तिरस्कार करनेवाला है (सः) वह (पौंस्येभिः) उत्तम शरीर और आत्मा के बल के साथ वर्त्तमान (नु) शीघ्र (अद्य) आज (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहारों के लिये (भवतु) होवे ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जो पुर, नगर और ग्रामों का अच्छे प्रकार रक्षा करनेवाला वा पूर्ण सेनाङ्गों की सामग्री सहित जिसने कलाकौशल तथा शस्त्र-अस्त्रों से युद्धक्रिया को जाना हो और परिपूर्ण विद्या तथा बल से पुष्ट शत्रुओं के पराजय से प्रजा की पालना करने में प्रसन्न होता है, वही सेना आदि का अधिपति करने योग्य है, अन्य नहीं ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यो मरुत्वानिन्द्रो सेनाद्यधिपतिर्ग्रामेभिः सह सनिता धनानि भुङ्क्ते स आनन्दी जायते, यो विदे रथेभिर्विश्वाभिः कृष्टिभिश्च प्रकाशते स यश्चाशस्तीः क्रिया विदित्वाभिभूर्भवति स पौंस्येभिर्न्वद्य न ऊती भवतु ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (ग्रामेभिः) ग्रामस्थैः प्रजापुरुषैः (सनिता) संविभक्तानि (सः) (रथेभिः) विमानादिभिः सेनाङ्गैः (विदे) विदन्ति युद्धविद्या विजयान् वा यया क्रियया तस्यै। अत्र संपदादित्वात् क्विप्। (विश्वाभिः) समग्राभिः (कृष्टिभिः) विलेखनक्रियाभिः (नु) सद्यः (अद्य) अस्मिन्नहनि (सः) (पौंस्येभिः) उत्कृष्टैः शरीरात्मबलैः सह वर्त्तमानः (अभिभूः) शत्रूणां तिरस्कर्त्ता (अशस्तीः) अप्रशंसनीयाः शत्रुक्रियाः (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यः पुरनगरग्रामाणां सम्यग्रक्षिता पूर्णसेनाङ्गसामग्रीसहितो विदितकलाकौशलशस्त्रास्त्रयुद्धक्रियः पूर्णविद्याबलाभ्यां पुष्टः शत्रूणां पराजयेन प्रजापालनप्रसन्नो भवति स एव सेनाद्यधिपतिः कर्त्तव्यो नेतरः ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो पूर, नगर व गावाचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करतो, पूर्ण सेनांगाच्या सामग्रीसह ज्याने कलाकौशल्य व शस्त्र-अस्त्राने युद्धविद्येची क्रिया जाणलेली आहे तसेच परिपूर्ण विद्या व बलाने पुष्ट असून शत्रूंचा पराजय करून प्रजेचे पालन करतो व प्रसन्न होतो तोच सेना इत्यादीचा अधिपती बनण्यायोग्य आहे, इतर नव्हे. ॥ १० ॥